POEM

दीवार खड़ी होती है
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जब ममता के रिश्तों में,
झनकार खड़ी होती है।
सबसे पहले आँगन में,
दीवार खड़ी होती है।

जब भाई भाई में शक,
बन शुभ चिन्तक आता है,
पहले जुमले बाजी फिर,
तकरार खड़ी होती है।

जब बचपन को विसरा कर,
टकरा जाते हैं बेटे,
अपने घर में बूढ़ी माँ,
लाचार खड़ी होती है।

ना आएगा जान रही,
पर मन ही मन आस लिए,
चौखट पर अब भी दादी,
बीमार खड़ी होती है।

है बदनाम बेचारी औरत,
लेकिन यह भी सच है,
बहुत बार लालच में ही,
तलवार खड़ी होती है।

बार बार झटकी जाती,
फिर भी वह जब आता है,
पानी गुड़ ले कर में वो,
हर बार खड़ी होती है।

तब लगता है छूट गई,
पीछे भी कोई दुनियां,
जब कोई चिड़िया जाकर,
उस पार खड़ी होती है।

अच्छा लगता है मुझको,
जब अपनी रक्षा खातिर,
हाथों में लाठी लेकर,
सलवार खड़ी होती है।

जब तक ज़िन्दा हैं तबतक,
उम्मीद बिछाएं ओढ़ें,
मर जाने के बाद यहाँ,
सरकार खड़ी होती है।

– धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव संरक्षक मानव सेवा समिति

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