POEM

सियासत चल के आती है
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किसी क्षण उग के आती है, किसी क्षण ढल के आती है।
किरण ले रोशनी आती है लेकिन जल के आती है।

न मालूम कौन सा रिश्ता है जिसको रोशनी जीने,
करोड़ों लाखों कोसों से तपिश में पल के आती है।

किसी दिन कोसने से पहले करिए आंसुओं को याद,
नहीं जब कोई आता तो सियासत चल के आती है।

विहँस उठती हैं आँखें देख उसके आते कदमों को,
सियासत जब भी दुख में साथ देने फल के आती है।

शरम के मारे अपनी आँख में मर जाती है तितली,
दिवानेपन में छुपके मीत से जब मिल के आती है।

ज़ईफी जित्ते पे कहती है छोड़ो रार ना अच्छा
जवानी उते में सीने पे पत्थर दल के आती है।

भरी दुनियाँ में केवल माँ है जो ज्वालामुखी से भी,
बचाने के लिए बच्चे को मरने खुल के आती है।

खबर दुख दर्द की मिलते ही खुद बिसरा के हर शिकवा,
बहन भाई से मिलने बर्फ माफिक गल के आती है।

बहुत पछताती है अपने किए कर्मों पे वह छुपकर,
किसी को राह में अच्छाई भी जब छल के आती है।

धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव
संरक्षक मानव सेवा समिति

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